Wednesday, January 13, 2010

डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना


हिन्‍दी के प्रतिष्ठित कथाकार डॉ. मधुकर गंगाधर के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व पर केन्द्रित एक पुस्‍तक डॉ. रमेश नीलकमल ने संपादित की है, जो 2009 में मुकुल प्रकाशन, नई दिल्‍ली से प्रकाशित हुई है। पुस्‍तक का नाम है : डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना। इस पुस्‍तक शामिल 45 आलेखों के माध्‍यम से मधुकर गंगाधर के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के विभिन्‍न आयामों को सामने लाने और उनके रचनात्‍मक अवदान को मूल्‍यांकित करने का प्रयत्‍न किया गया है। पुस्‍तक में शामिल कुछ लेखकों के नाम हैं : कलक्‍टर सिंह केसरी, गोपी वल्‍लभ सहाय, गंगा प्रसाद विमल, राजेन्‍द्र अवस्‍थी, भगवतीशरण मिश्र, बलदेव वंशी, गोपेश्‍वर सिंह, श्‍याम सुंदर घोष, मधुकर सिंह, विजेन्‍द्र अनिल, देवशंकर नवीन, संजय कुमार सिंह, सुरेन्‍द्र प्रसाद जमुआर, नरेश पांडेय चकोर, कमला प्रसाद बेखबर, उदभ्रांत, रणविजय सिंह सत्‍यकेतु।
मधुकर गंगाधर का जन्‍म पूर्णिया जिले के झलारी गॉंव में 1933 ई. में हुआ था। वे उनतीस वर्ष तक ऑल इंडिया रेडियो की सेवा से जुड़े रहे। अनेक विधाओं में लेखन किया। उनकी प्रकाशित कृतियों में दस कहानी-संग्रह, आठ उपन्‍यास, चार कविता-संग्रह, तीन संस्‍मरण पुस्‍तकें, तीन नाठक और चार अन्‍य विधाओं की रचनाऍं शामिल हैं। उपन्‍यासों के नाम हैं-मोतियों वाले हाथ (1959), यही सच है (1963), फिर से कहो (1964), उत्‍तरकथा (1965), सुबह होने तक (1968), सातवीं बेटी (1976), गर्म पहलुओं वाला मकान (1981) तथा जयगाथा। कहानी-संग्रह हैं- नागरिकता के छिलके (1956), तीन रंग:तेरह चित्र (1958), हिरना की ऑंखें (1959), गर्म गोश्‍त:बर्फीली तासीर (1965), शेरछाप कुर्सी (1976), गॉंव कसबा नगर (1982), उठे हुए हाथ (1983), मछलियों की चीख (1983), सौ का नोट (1986) तथा बरगद (1988)।
मधुकर गंगाधर अपनी पहली कहानी 'घिरनीवाली' (योगी, साप्‍ताहिक, पटना) के साथ 1955 ई. में प्रकाश में आए, जो सर्विस लैट्रिन साफ करनेवाली एक खूबसूरत मेहतरानी के वैयक्तिक अंतर्विरोध पर लिखी गई थी। यह काल 'नई कहानी आंदोलन' के रूप में प्रतिष्ठित कहानियों की रचना का काल है, जिनके आधार पर सातवें दशक के पूर्वार्द्ध में 'नई कहानी' की प्रवृत्तियों को विश्‍लेषित, व्‍याख्‍यायित करके उसे एक कथाधारा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। उक्‍त कालखंड में लिखी डॉ. गंगाधर की कहानियॉं पहले 'तीन रंग : तेरह चित्र' (1958), हिरना की ऑंखें (1959) तथा 'गर्म गोश्‍त : बर्फीली तासीर (1959) कहानी-संग्रहों में प्रकाशित हुई थीं, जिन्‍हें एक साथ 'गॉंव कसबा नगर' कहानी-संग्रह में पढ़ते हुए 'नई कहानी' की नवीनता को विविध रूपों में देखा जा सकता है। डॉ. गंगाधर को मुख्‍यत: ग्रामीण परिवेश का रचनाकार ही माना जाता रहा है, परंतु इस संदर्भ में उनका अपना वक्‍तव्‍य यह है--''जब तक गॉंव में था, गॉंव की कहानियॉं लिखीं। शहर में रहकर यहॉं के जीवन, संघर्ष, मानसिकता से एकाकार होने पर पर शहर की कहानियॉं लिखता रहा हूँ। वस्‍तुत: मैं तो आदमी के संघर्ष और उसकी विजय की खोज में रहा हूँ-वह गॉंव का परिवेश हो, शहर का परिवेश हो या कस्‍बे का परिवेश।''
वास्‍तव में डॉ. मधुकर गंगाधर एक निरंतर रचनाशील व्‍यक्तित्‍व का नाम है, जिसने न केवल कहानी, वरन उपन्‍यास, नाटक, कविता, रेडियो रूपक, आलोचना आदि विधाओं में भी अपनी सशक्‍त कलम चलाई है तथा अपनी रचनात्‍मकता को श्रेष्‍ठता की कसौटी पर कसे जाने के लिए उसे मौलिक, नवीन और विशिष्‍ट स्‍वरूप में सर्वदा प्रस्‍तुत किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाऍं प्रकाशित होने के साथ ही चर्चा का विषय रही हैं तथा बावजूद इसके कि वे अपने को किसी कथाधारा से संबद्ध नहीं मानते, उनकी रचनाऍं तत्‍कालीन समय की कथा-प्रवृत्तियों आंचलिक कहानी, नई कहानी, ग्राम कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि के अंतर्गत परिगणित तथा समालोचित की जाती रही हैं।

Sunday, January 3, 2010

सुरेन्‍द्र स्निग्‍ध का उपन्‍यास 'छाड़न'



2009 में प्रतिष्ठित हिन्‍दी कवि और आलोचक डॉ. सुरेन्‍द्र स्निग्‍ध द्वारा लिखित उपन्‍यास 'छाड़न'(प्रथम संस्‍करण : 2005) का तीसरा संस्‍करण किताब महल, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। संप्रति पटना विश्‍वविद्यालय के स्‍नातकोत्‍तर हिन्‍दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. स्निग्‍ध का जन्‍म पूर्णिया जिले के सिंघियान नामक गॉंव में 1952 ई. में हुआ था। वे 'गॉंव घर', 'भारती', 'नई संस्‍कृति' नामक पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे और 'प्रगतिशील समाज' के कहानी विशेषांक और 'उन्‍नयन' के बिहार-कवितांक का संपादन किया। स्निग्‍ध जी की तीन कविता पुस्‍तकें-'पके धान की गंध', 'कई कई यात्राऍं' और'अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता' प्रकाशित हैं। उनकी प्रकाशित आलोचना कृतियॉं हैं-'सबद सबद बहु अंतरा' तथा 'नई कविता की नई जमीन'।
'छाड़न' में कोसी नदी की छाड़न धाराओं के साथ स्थित गॉंवों की कथा कही गई है। इसके कथानक में अनेक कथाऍं अनुस्‍यूत हैं। ये कथाऍं भी प्रकारांतर से समय-समाज की छाड़न कथाऍं ही हैं। इन कथाओं के कोलाज में जो अंतर्धारा आरंभ से अंत तक प्रवाहित है, वह है कोसी अंचल में सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राज‍नीतिक प्रभावान्विति की अंतर्धारा। उपन्‍यास में 1925 ई. में गॉंधी द्वारा कोसी अंचल की यात्रा से आरंभ कर 1975 ई. तक के चित्र प्रस्‍तुत किए गए हैं। अंतिम कुछ चित्रों में बीसवीं सदी के अंतिम दशक की परिस्थितियों को सं‍केतित करने का प्रयत्‍न किया गया है। प्रतिष्ठित हिन्‍दी कवि-आलोचक श्री अरुण कमल ने लेखक को अपने एक पत्र में उपन्‍यास पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हुए लिखा है-'रेणु ने जहॉं 'मैला ऑंचल' को छोड़ा था, वहॉं से आपने आरंभ किया है...यह उपन्‍यास के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है।...रिपोर्ताज, कथन, कविता, कथानक, चरित्र, राजनीति-सब मिलकर इसे एक विशिष्‍ट कलेवर प्रदान करते हैं। 'छाड़न' यानी नया सिक्‍का ढल रहा है।'
उपन्‍यास के आरंभ में महात्‍मा गॉंधी द्वारा पूर्णिया के 1925 और 1927 के तूफानी दौरे को रेखांकित किया गया है। उस समय जनता दोहरी, तिहरी गुलामी की चक्‍की में पिस रही थी। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए हिंसक-अहिंसक आंदोलनों का जो परिदृश्‍य था, उसके चित्रण के साथ-साथ लेखक ने जमींदारों के शोषण की चक्‍की में पिसती जनता की कथा भी सूक्ष्‍मता के साथ प्रस्‍तुत की है। अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ छापामार लड़ाई लड़नेवाले गरीबों के मसीहा नछत्‍तर मालाकार की लड़ाई पचास वर्षों बाद पूरे इलाके में नक्‍सलवादी आंदोलन में परिणत हो गई और वर्तमान राजनीति किस प्रकार विचारधारा-विहीन होकर जाति, संप्रदाय, आतंक के भेंट चढ़ गई--इसकी कथा संकेतों में ही सही, लेकिन गंभीरता से उपन्‍यास में बयां होती है।
उपन्‍यास के बारे में स्‍वयं लेखक का कहना है कि यह उपन्‍यास पूरी तरह से वैचारिक आधार पर लिखा गया है, जो कोसी क्षेत्र के जनसंघर्ष और वहॉं के राजनीतिक और सांस्‍कृतिक विकास का एक छोटा-सा संकेत है, इस पूरे क्षेत्र का लोकजीवन, पर्यावरण, संघर्ष और जिजीविषा की पड़ताल इस उपन्‍यास में की गई है।