Friday, December 31, 2010

कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें : हरिशंकर श्रीवास्‍तव 'शलभ'


कोसी अंचल के प्रतिष्‍ठित लेखक हरिशंकर श्रीवास्‍तव 'शलभ' की पुस्‍तक 'कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें' कोसी अंचल की साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक विरासत को सामने लानेवाली महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेजी पुस्‍तक है। ऐतिहासिक, साहित्‍यिक एवं सांस्‍कृतिक निबंधों के इस संग्रह को समीक्षा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर द्वारा 2005 ई. में प्रकाशित किया गया है। संग्रह में अंचल की धार्मिक एवं ऐतिहासिक धरोहरों, गंधवरिया राजवंश एवं उसकी सांगीतिक धरोहरों, लोकदेवों, जननायक भीम कैवर्त और कोशी गीत पर लिखित आलेखों के अलावा अंचल के दस प्रतिष्‍ठित एवं महत्‍वपूर्ण लेखकों के व्‍यक्‍ितत्‍व एवं कृतित्‍व का समुचित परिचय प्रस्‍तुत किया गया है। ये दस लेखक हैं : यदुनाथ्‍ा झा यदुवर, पं. छेदी झा द्विजवर, पुलकित लालदास मधुर, पं. युगल शास्‍त्री प्रेम, सत्‍यनारायण पोद्दार सत्‍य, राधाकृष्‍ण चौधरी, परमेश्‍वरी प्रसाद मंडल, पं. राधाकृष्‍ण झा किसुन, प्रबोध नारायण सिंह तथा लक्ष्‍मी प्रसाद श्रीवास्‍तव। इन लेखकों पर प्रस्‍तुत सामग्री संस्‍मरणात्‍मक भी है और उनकी रचनाओं का परिशीलन करते हुए उनके साहित्‍यिक अवदान का रेखांकन भी।
श्री शलभ का जन्‍म 1 जनवरी 1934 ई. को मधेपुरा (बिहार) में हुआ था। बिहार सरकार की सेवा करते हुए कल्‍याण पदाधिकारी के रूप में सेवानिवृत्‍त श्री शलभ ने हिन्‍दी भाषा एवं साहित्‍य में स्‍नातकोत्‍तर तथा विधि स्‍नातक की उपाधियॉं प्राप्‍त की हैं। आपकी अन्‍य प्रकाशित कृतियॉं निम्‍नांकित हैं : अर्चना (गीत-संग्रह, 1951), आनंद (खंड काव्‍य, 1960), एक बनजारा विजन में ( कविता-संग्रह, 1989), मधेपुरा में स्‍वतंत्रता आंदोलन का इतिहास (1996), शैव अवधारणा और सिंहेश्‍वर स्‍थान (1998), मंत्रद्रष्‍टा ऋष्‍यशृंग (2003) तथा़ अंगिका लिपि की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि (2006)।

Wednesday, December 8, 2010

महिषी की तारा : इतिहास और आख्‍यान


डॉ. तारानंद वियोगी कोसी अंचल के महिषी स्‍िथत सिद्धपीठ तारास्‍थान पर एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक लिखी है, जो 'महिषी की तारा : इतिहास और आख्‍यान' के नाम से नवारंभ (पटना) द्वारा 2010 में प्रकाशित की गई है। पुस्‍तक तीन अध्‍यायों में विभक्‍त है। प्रथम अध्‍याय में महिषी का सांस्‍कृतिक इतिहास और द्वितीय अध्‍याय में तारा-साधना का प्राचीन इतिहास निबद्ध किया गया है। प्रकारांतर से महिषी का सांस्‍कृतिक इतिहास कोसी अंचल का सांस्‍कृतिक इतिहास भी है। तृतीय अध्‍याय में तारा-तंत्र-साधना के महत्‍व और स्‍वरूप पर प्रकाश डाला गया है। ध्‍यातव्‍य है कि सिद्धपीठ महिषी का ज्ञात इतिहास तीन हजार वर्ष पुराना है। भगवान बुद्ध का आगमन भी यहॉं हुआ था। उस समय भी यहॉं की उन्‍नत सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता ने उनका ध्‍यान आकृष्‍ट किया था। पूर्व में यह किरातों का क्षेत्र था। महाभारत काल में पांडवों ने यहॉं की किरात जातियों से वैवाहिक संबंध भी स्‍थापित किए थे। आगे चलकर आर्य एवं किरातों के समन्‍वय के पश्‍चात यहॉं एक मिश्रित संस्‍कृति का विकास हुआ। बौद्धकाल में भी बड़ी संख्‍या में यहॉं के लोग बौद्धावलंबी हुए। मौर्यकाल में बौद्ध गतिविधियों की यहॉं काफी सक्रियता रही।
उक्‍त सांस्‍कृतिक विविधता के अलावा कोसी अंचल का यह परिसर मौर्य, गुप्‍त, पाल, शुंग, काण्‍व, आंध्र, कुषाण, नाग, वाकाटक, हर्षवर्धन, मिथिला नरेश आदि शासकों द्वारा शासित होता रहा। राजनीतिक उथल-पुथल, सांस्‍कृतिक वैविध्‍य और कोसी नदी के विकराल तांडव ने कोसी अंचल की सभ्‍यता-संस्‍कृति को गहरे प्रभावित किया है। तारानंद वियोगी ने अपनी पुस्‍तक में सांस्‍कृतिक इतिहास को खंगालते हुए यह स्‍थापित किया है कि महिषी की तारा मूलत: एक बौद्ध देवी हैं, जिन्‍हें सभी बुद्धों की माता का स्‍थान प्राप्‍त है।
महिषी (सहरसा) में 12 मई 1966 को जन्‍मे डॉ. तारानंद वियोगी हिन्‍दी एवं मैथिली के प्रतिष्‍ठित लेखक हैं, जिनकी मौलिक-संपादित दो दर्जन पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

Tuesday, October 26, 2010

नदियॉं गाती हैं : कोसी-केन्‍द्रित अध्‍ययन


'नदियॉं गाती हैं' प्रतिष्‍ठित लोकसाहित्‍य अध्‍येता डॉ. ओमप्रकाश भारती की प्रथम पुस्‍तक है, जिसका पहला संस्‍करण 2001 ई. में और द्वितीय संस्‍करण 2009 ई. में धरोहर (साहिबाबाद, गाजियाबाद) से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्‍तक में भारती जी ने कोसी नदी का लोकसांस्‍कृतिक अध्‍ययन प्रस्‍तुत किया है। इस क्रम में उन्‍होंने कोसी नदी और अंचल से संबंधित भूगोल, इतिहास, समाज और लोकसाहित्‍य का विवेचन प्रस्‍तुत करते हुए कोसी नदी से संबंधित पचास लोकगीतों को संगृहीत किया है। पुस्‍तक में ई. टी. प्रीडो द्वारा संकलित और 'मेन इन इंडिया' में 1943 ई; में प्रकाशित कोसी गीतों के अंग्रेजी भावांतर भी शामिल किए गए हैं।
पुस्‍तक की प्रस्‍तावना प्रतिष्‍ठित विद्वान कोमल कोठारी ने लिखी है, जबकि अपनी भूमिका में डॉ. भारती ने सृजन की संवेदना पर बात करते हुए लोक साहित्‍य के प्रति अपने समर्पण को ही रेखांकित किया है। पुस्‍तक के प्रारंभिक छह अध्‍याय हैं--'कोसी नदी का भौगोलिक स्‍वरूप', 'कोसी : मिथ और लोक इतिहास', 'कोसी के लोगों का पारंपरिक ज्ञान', कोसीनदी गीतों का समाजशास्‍त्रीय पक्ष', 'कोसी नदी के गीतों का पुरासंगीतशास्‍त्रीय स्‍वरूप' तथा 'कोसी नदी के गीतों का संगीतशास्‍त्रीय स्‍वरूप'। सातवें अध्‍याय के रूप में भारती जी ने गीतों की खोज में भटकते हुए एक संस्‍मरण और रिपोर्ताज प्रस्‍तुत किया है। आठवें अध्‍याय के अंतर्गत तीन त्रासद और मार्मिक संस्‍मरणों की प्रस्‍तुतियॉं हैं। पुस्‍तक के परिशिष्‍ट में कोसी नदी से जुड़े कुछ नक्‍शे और छायाचित्र भी सम्‍मिलित हैं।

Tuesday, September 7, 2010

कोशी की संस्‍कृति : कुछ अनछुए प्रसंग


'कोशी की संस्‍कृति : कुछ अनछुए प्रसंग' शीर्षक पुस्‍तक डॉ. रेणु सिंह के संपादन में भारती प्रकाशन, वाराणसी से 2009 में प्रकाशित हुई है। इस पुस्‍तक में कोसी अंचल की सांस्‍कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, पुरातात्‍िवक और ऐतिहासिक धरोहरों को उद्घाटित और रेखांकित करने के उद्देश्‍य से तेरह विद्वानों के आलेखों को संकलित किया गया है। पुस्‍तक के अंत में कोसी अंचल की धरोहरों के छायाचित्र भी प्रकाशित किए गए हैं।
कोसी अंचल में नागपूजन की परंपरा पर डॉ. प्रफुल्‍ल कुमार सिंह 'मौन' का आलेख, मंडन मिश्र पर केन्‍द्रित आचार्य धीरज का आलेख, गंधवरिया राजवंश और संगीत परंपरा पर श्री हरिशंकर श्रीवास्‍तव 'शलभ' का आलेख, अगस्‍त क्रांति और भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन में कोसी अंचल की भूमिका पर डॉ. प्रभुनारायण विद्यार्थी का आलेख और कोसी अंचल की पांडित्‍य परंपरा पर डॉ. रेणु सिंह का आलेख हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हैं और कोसी अंचल से जुडे् अनेक महत्‍वपूर्ण पहलुओं से हमारा परिचय कराते हैं।
कोसी की संस्‍कृति पर केन्‍द्रित डॉ. ओमप्रकाश पांडेय, डॉ. अरविन्‍द महाजन और श्री आदित्‍य श्रीवास्‍तव के आलेख भी महत्‍वपूर्ण हैं, वहीं गढ्बनैली राज की भूमिका पर डॉ. प्रतापनारायण सिंह का आलेख अपनी ही तरह का है। मुल्‍ला दाऊद के 'चांदायन' में उल्‍लेखित कुछ महत्‍वपूर्ण स्‍थानों की पहचान डॉ. रमेशचंद्र वर्मा ने कोसी अंचल के विभिन्‍न स्‍थलों के रूप में की है। कोसी अंचल के विश्‍वप्रतिष्‍ठ कथाकार फणीश्‍वरनाथ रेणु के 'मैला आंचल' के हवाले से डॉ. विभाशंकर ने आंचलिकता और राष्‍ट्रीयता के विन्‍दुओं पर सार्थक विमर्श प्रस्‍तुत किया है।
पुस्‍तक में दो आलेख अंग्रेजी में हैं, जिनमें से पहला श्री उमेश कुमार सिंह ने लिखा है और अपने आलेख में बुद्धकालीन अंगुत्‍तराप और आपण-निगम की पहचान कोसी अंचल के क्षेत्र के रूप में की है। दूसरा आलेख डॉ. पी.के. मिश्र का है, जिसमें उन्‍होंने कोसी अंचल के अद्यतन पुरातात्‍विक खोजों का उल्‍लेख किया है।
पुस्‍तक की संपादिका डॉ. रेणु सिंह संप्रति राजेन्‍द्र मिश्र महाविद्यालय, सहरसा, बिहार में प्रधानाचार्य हैं। आप द्वारा संपादित यह पुस्‍तक एक अमूल्‍य योगदान है। आपकी पूर्व प्रकाशित आलोचना कृति 'सत्‍यकाम : काव्‍य और दर्शन' को भी पाठकों की पर्याप्‍त प्रशंसा प्राप्‍त हुई थी।

Wednesday, August 25, 2010

कोसी की दग्‍ध अंतर-कथा



हाल ही में कर्नल अजित दत्‍त के शोधपूर्ण आलेखों का संग्रह 'कोसी की दग्‍ध अंतर-कथा' के नाम से संवदिया प्रकाशन, अररिया से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्‍तक में कुल 16 लेख संकलित हैं, जिनमें कोसी नदी और अंचल से जुड़ी ऐतिहासिक, पौराणिक, मिथकीय और समसामयिक विषय-वस्‍तुओं और संदर्भों का रोचक प्रस्‍तुतीकरण किया गया है। लेखक के अनुभवों और ज्ञान से पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। ये लेख लोक साहित्‍य और संस्‍कृति के विस्‍मृत पहलुओं को भी सामने लाते हैं। कुछ महत्‍वपूर्ण विषय हैं--भगैत गायन, लोक देव, लोक देवियॉं, ईलोजी, सुल्‍तान माई, परवाहा युद्ध, फरमान नदी, कोसी नदी, वीरनगर विसहरिया, बल्‍िदयाबाड़ी का युद्ध, सिंहेश्‍वर थान, कोसी अंचल की ऐतिहासिक धरोहरें।
कर्नल अजित दत्‍त का जन्‍म 18 जुलाई, 1948 ई. को कोसी अंचल के मधेपुरा जिलांतर्गत हनुमान नगर में हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा ली एकेडमी, फारबिसगंज में हुई, बाद में आपने पटना विश्‍वविद्यालय से भौतिकी में स्‍नातकोत्‍तर उपाधि प्राप्‍त की। आपने 1971 ई. में कमीशंड ऑफिसर के रूप में भारतीय सेना में अपने कार्यजीवन की शुरुआत की और बाद में पैराशूटिंग फोर्स के लिए चुन लिए गए, फिर एलीट स्‍ट्राइक फोर्स से जुड़े और लखनऊ के एडमिनिस्‍ट्रेटिव कंमांडेंट के रूप में कार्य किया। पर्वतारोहण आपका खास शौक रहा और भारत एवं विदेशों में आपने दो दर्जन से अधिक अभियानों में सफल भागीदारी की।
कर्नल दत्‍त की उपलब्‍धियों में भारत के राष्‍ट्रपित द्वारा सेना मेडल सम्‍मान (गैलेंट्री)-1992, चीफ ऑफ द आर्मी स्‍टाफ्स कमांडेशन कार्ड'1976 एवं 1996 तथा जनरल दौलत सिंह ट्रॉफी अवार्ड-1986 शामिल हैं। आप रॉयल ज्‍योग्राफिकल सोसायटी, लंदन के फेलो (1991) रहे और बार्सीलोना (स्‍पेन) एवं नेवादा (अमेरिका) में क्रमश: 1991 एवं 1992 में आयोजित इंटरनेशनल मीट ऑफ यू.आई.ए. माउंटेनियरिंग कमीशन में भारत का प्रतिनिधित्‍व किया। आपने हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्‍टीट्यूट, दार्जीलिंग (मई 1990-फरवरी 1995) तथा नेहरू इंस्‍टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग, उत्‍तरकाशी (मई 1997-नवंबर 2000) के प्रिंसिपल के रूप में भी कार्य किया। आप पश्‍चिम बंगाल सरकार के मानद वाइल्‍ड लाइफ वार्डन हैं। आपने पर्वतारोहण के उद्देश्‍य से स्‍विटजरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, इंग्‍लैंड, नेपाल और भूटान देशों की यात्रा की है।
कर्नल अजित दत्‍त ने अंग्रेजी और हिन्‍दी में अनेक महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकों की रचना की है। आपके आलेख प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी अन्‍य प्रकाशित पुस्‍तकें हैं--अंग्रेजी में--कॉल ऑफ द वैली (Call of the valley, 1991), ब्रेव शेरपाज (Brave Sherpas, 1993), क्‍लाइंबिंग एडवेंचर इन अरुणाचल (Climbing adventure in Arunachal, 1994), फर्स्‍ट क्‍लाइंब ऑफ माउंट मुकुट ईस्‍ट (First climb of Mount Mukut East, 1999), फारबिसगंज जंक्‍शन (Forbeseganj Junction, 1998), दस स्‍पोक नचिकेता (Thus spoke Nachiketa, 2000) तथा हिन्‍दी में--नचिकेता उवाच (2000) एवं अभियान कथा (2005)।
उक्‍त पुस्‍तक प्राप्‍त करने के लिए निम्‍नांकित पते पर संपर्क किया जा सकता है :
संवदिया प्रकाशन, जयप्रकाश नगर, वार्ड नं. 7, अररिया, बिहार 854311,
ई-मेल : samvadiapatrika@yaoo.com

Thursday, July 15, 2010

शांति सुमन की गीत रचना और दृष्टि


हिन्‍दी एवं मैथिली की प्रतिष्ठित कवयित्री और गीतकार डॉ. शांति सुमन की समग्र रचनात्‍मकता पर केन्द्रित पुस्‍तक 'शांति सुमन की गीत-रचना और दृष्टि' के नाम से सुमन भारती प्रकाशन, जमशेदपुर द्वारा 2009 में किया गया है, जिसके संपादक हैं श्री दिनेश्‍वर प्रसाद सिंह 'दिनेश'। पुस्‍तक केन्‍द्र, वृत्‍त और परिधि शीर्षक तीन खंडों में विभाजित है। 'केन्‍द्र' शीर्षक खंड में शांति सुमन के जनवादी गीतों पर 13 आलोचकों के विचारों का समावेश है, जिनमें प्रमुख हैं--डॉ. शिवकुमार मिश्र, डॉ. विजेन्‍द्र नारायण सिंह, डॉ. मैनेजर पांडेय, डॉ. रविभूषण, श्री रामनिहाल गुंजन, डॉ. चंद्रभूषण तिवारी और श्री ओमप्रकाश ग्रेवाल। इस खंड में श्री कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह, श्री मदन कश्‍यप, श्री नचिकेता, श्री रमेश रंजक और श्री माहेश्‍वर की आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियॉं भी शामिल हैं। इसी खंड में शांति सुमन के नवगीतों पर 12 आलोचनात्‍मक आलेख भी प्रकाशित हैं। ये आलेख श्री राजेन्‍द्र प्रसाद सिंह, श्री उमाकांत मालवीय, डॉ. रेवती रमण, डॉ. सुरेश गौतम, श्री सत्‍यनारायण, डॉ. विश्‍वनाथ प्रसाद, डॉ. वशिष्‍ठ अनूप, श्री ओम प्रभकर, श्री विश्‍वंभरनाथ उपाध्‍याय, श्री कुमार रवीन्‍द्र और डॉ. अरविन्‍द कुमार द्वारा प्रस्‍तुत किए गए है।
'वृत्‍त' शीर्षक खंड के अंतर्गत शांति सुमन के व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व पर संपादक का एक लेख और लेखिका का आत्‍मकथ्‍य प्रकाशित किया गया है। 'परिधि' शीर्षक खंड के अंतर्गत शांति सुमन की गद्य-पद्य कृतियों पर समीक्षाऍं शामिल की गई हैं। पुस्‍तक के अंत में शांति सुमन के कुछ चुने हुए गीत प्रकाशित किए गए हैं।
15 सितंबर, 1944 को कोसी अंचल के एक गॉंव कासिमपुर (सहरसा) में जन्‍मी शांति सुमन ने अपनी किशोरावस्‍था से ही कविताऍं लिखना शुरू कर दिया था, जब वो आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं। उनकी पहली गीत-रचना त्रिवेणीगंज, सुपौल से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'रश्मि' (संपादक : तारानंद तरुण) में छपी थी। लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर से हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर उपाधि प्राप्‍त शांति सुमन ने महंत दर्शनदास महिला कॉलेज में आजीविका पाई और 33 वर्षों तक प्राध्‍यापन के बाद वहीं से प्रोफेसर एवं हिन्‍दी विभागाध्‍यक्ष के पद से 2004 में सेवामुक्‍त हुईं। 'आधुनिक हिन्‍दी काव्‍य में मध्‍यवर्गीय चेतना' विषय पर पीएच. डी. उपाधि प्राप्‍त डॉ. शांति सुमन के हिन्‍दी में अब तक दस नवगीत संग्रह--'ओ प्रतीक्षित' (1970), 'पर‍छाईं टूटती' (1978), 'सुलगते पसीने' (1979), 'पसीने के रिश्‍ते' (1980), 'मौसम हुआ कबीर' (1985, 1999),'तप रहे कँचनार' (1997), 'भीतर-भीतर आग' (2002), 'पंख-पंख आसमान' (2004), 'एक सूर्य रोटी पर' (2006) एवं 'धूप रंगे दिन' (2007) , और 'मेघ इंद्रनील' (1991) नामक मैथिली गीत संग्रह प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्‍त उनका एक हिन्‍दी उपन्‍यास 'जल झुका हिरन' (1976) और शोधप्रबंध पर आधारित आलोचनात्‍मक पुस्‍तक 'मध्‍यवर्गीय चेतना और हिन्‍दी का आधुनिक काव्‍य' (1993) प्रकाशित हैं।
'सर्जना' (1963-64, तीन अंक प्रकाशित), 'अन्‍यथा' (1971) और 'बीज' नामक पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रही शांति सुमन ने 1967 से 1990 के दौरान कवि सम्‍मेलनों एवं मंचों पर अपनी गीत-प्रस्‍तुति से अपार यश अर्जित किया। अपनी धारदार गीत सर्जना के लिए हिन्‍दी संसार मे विशिष्‍ट पहचान रखनेवाली डॉ. शांति सुमन को को विभिन्‍न पुरस्‍कार-सम्‍मानों से विभूषित किया गया है, जिनमें शामिल हैं--'भिक्षुक' (मुजफ्फरपुर का पत्र) द्वारा सम्‍मानपत्र, बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद का साहित्‍य सेवा सम्‍मान, हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन (प्रयाग) का कविरत्‍न सम्‍मान, बिहार सरकार के राजभाषा विभाग का महादेवी वर्मा सम्‍मान, अवंतिका (दिल्‍ली) का विशिष्‍ट साहित्‍य सम्‍मान, मैथिली साहित्‍य परिषद का विद्यावाचस्‍पति सम्‍मान, हिन्‍दी प्रगति समिति का भारतेन्‍दु सम्‍मान एवं सुरंगमा सम्‍मान, विंध्‍य प्रदेश से साहित्‍य मणि सम्‍मान, हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन का साहित्‍य भारती सम्‍मान (2005) तथा उत्‍तर प्रदेश हिन्‍दी संस्‍थान का सौहार्द सम्‍मान (2006)

Wednesday, January 13, 2010

डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना


हिन्‍दी के प्रतिष्ठित कथाकार डॉ. मधुकर गंगाधर के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व पर केन्द्रित एक पुस्‍तक डॉ. रमेश नीलकमल ने संपादित की है, जो 2009 में मुकुल प्रकाशन, नई दिल्‍ली से प्रकाशित हुई है। पुस्‍तक का नाम है : डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना। इस पुस्‍तक शामिल 45 आलेखों के माध्‍यम से मधुकर गंगाधर के व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के विभिन्‍न आयामों को सामने लाने और उनके रचनात्‍मक अवदान को मूल्‍यांकित करने का प्रयत्‍न किया गया है। पुस्‍तक में शामिल कुछ लेखकों के नाम हैं : कलक्‍टर सिंह केसरी, गोपी वल्‍लभ सहाय, गंगा प्रसाद विमल, राजेन्‍द्र अवस्‍थी, भगवतीशरण मिश्र, बलदेव वंशी, गोपेश्‍वर सिंह, श्‍याम सुंदर घोष, मधुकर सिंह, विजेन्‍द्र अनिल, देवशंकर नवीन, संजय कुमार सिंह, सुरेन्‍द्र प्रसाद जमुआर, नरेश पांडेय चकोर, कमला प्रसाद बेखबर, उदभ्रांत, रणविजय सिंह सत्‍यकेतु।
मधुकर गंगाधर का जन्‍म पूर्णिया जिले के झलारी गॉंव में 1933 ई. में हुआ था। वे उनतीस वर्ष तक ऑल इंडिया रेडियो की सेवा से जुड़े रहे। अनेक विधाओं में लेखन किया। उनकी प्रकाशित कृतियों में दस कहानी-संग्रह, आठ उपन्‍यास, चार कविता-संग्रह, तीन संस्‍मरण पुस्‍तकें, तीन नाठक और चार अन्‍य विधाओं की रचनाऍं शामिल हैं। उपन्‍यासों के नाम हैं-मोतियों वाले हाथ (1959), यही सच है (1963), फिर से कहो (1964), उत्‍तरकथा (1965), सुबह होने तक (1968), सातवीं बेटी (1976), गर्म पहलुओं वाला मकान (1981) तथा जयगाथा। कहानी-संग्रह हैं- नागरिकता के छिलके (1956), तीन रंग:तेरह चित्र (1958), हिरना की ऑंखें (1959), गर्म गोश्‍त:बर्फीली तासीर (1965), शेरछाप कुर्सी (1976), गॉंव कसबा नगर (1982), उठे हुए हाथ (1983), मछलियों की चीख (1983), सौ का नोट (1986) तथा बरगद (1988)।
मधुकर गंगाधर अपनी पहली कहानी 'घिरनीवाली' (योगी, साप्‍ताहिक, पटना) के साथ 1955 ई. में प्रकाश में आए, जो सर्विस लैट्रिन साफ करनेवाली एक खूबसूरत मेहतरानी के वैयक्तिक अंतर्विरोध पर लिखी गई थी। यह काल 'नई कहानी आंदोलन' के रूप में प्रतिष्ठित कहानियों की रचना का काल है, जिनके आधार पर सातवें दशक के पूर्वार्द्ध में 'नई कहानी' की प्रवृत्तियों को विश्‍लेषित, व्‍याख्‍यायित करके उसे एक कथाधारा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। उक्‍त कालखंड में लिखी डॉ. गंगाधर की कहानियॉं पहले 'तीन रंग : तेरह चित्र' (1958), हिरना की ऑंखें (1959) तथा 'गर्म गोश्‍त : बर्फीली तासीर (1959) कहानी-संग्रहों में प्रकाशित हुई थीं, जिन्‍हें एक साथ 'गॉंव कसबा नगर' कहानी-संग्रह में पढ़ते हुए 'नई कहानी' की नवीनता को विविध रूपों में देखा जा सकता है। डॉ. गंगाधर को मुख्‍यत: ग्रामीण परिवेश का रचनाकार ही माना जाता रहा है, परंतु इस संदर्भ में उनका अपना वक्‍तव्‍य यह है--''जब तक गॉंव में था, गॉंव की कहानियॉं लिखीं। शहर में रहकर यहॉं के जीवन, संघर्ष, मानसिकता से एकाकार होने पर पर शहर की कहानियॉं लिखता रहा हूँ। वस्‍तुत: मैं तो आदमी के संघर्ष और उसकी विजय की खोज में रहा हूँ-वह गॉंव का परिवेश हो, शहर का परिवेश हो या कस्‍बे का परिवेश।''
वास्‍तव में डॉ. मधुकर गंगाधर एक निरंतर रचनाशील व्‍यक्तित्‍व का नाम है, जिसने न केवल कहानी, वरन उपन्‍यास, नाटक, कविता, रेडियो रूपक, आलोचना आदि विधाओं में भी अपनी सशक्‍त कलम चलाई है तथा अपनी रचनात्‍मकता को श्रेष्‍ठता की कसौटी पर कसे जाने के लिए उसे मौलिक, नवीन और विशिष्‍ट स्‍वरूप में सर्वदा प्रस्‍तुत किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाऍं प्रकाशित होने के साथ ही चर्चा का विषय रही हैं तथा बावजूद इसके कि वे अपने को किसी कथाधारा से संबद्ध नहीं मानते, उनकी रचनाऍं तत्‍कालीन समय की कथा-प्रवृत्तियों आंचलिक कहानी, नई कहानी, ग्राम कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि के अंतर्गत परिगणित तथा समालोचित की जाती रही हैं।

Sunday, January 3, 2010

सुरेन्‍द्र स्निग्‍ध का उपन्‍यास 'छाड़न'



2009 में प्रतिष्ठित हिन्‍दी कवि और आलोचक डॉ. सुरेन्‍द्र स्निग्‍ध द्वारा लिखित उपन्‍यास 'छाड़न'(प्रथम संस्‍करण : 2005) का तीसरा संस्‍करण किताब महल, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। संप्रति पटना विश्‍वविद्यालय के स्‍नातकोत्‍तर हिन्‍दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. स्निग्‍ध का जन्‍म पूर्णिया जिले के सिंघियान नामक गॉंव में 1952 ई. में हुआ था। वे 'गॉंव घर', 'भारती', 'नई संस्‍कृति' नामक पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे और 'प्रगतिशील समाज' के कहानी विशेषांक और 'उन्‍नयन' के बिहार-कवितांक का संपादन किया। स्निग्‍ध जी की तीन कविता पुस्‍तकें-'पके धान की गंध', 'कई कई यात्राऍं' और'अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता' प्रकाशित हैं। उनकी प्रकाशित आलोचना कृतियॉं हैं-'सबद सबद बहु अंतरा' तथा 'नई कविता की नई जमीन'।
'छाड़न' में कोसी नदी की छाड़न धाराओं के साथ स्थित गॉंवों की कथा कही गई है। इसके कथानक में अनेक कथाऍं अनुस्‍यूत हैं। ये कथाऍं भी प्रकारांतर से समय-समाज की छाड़न कथाऍं ही हैं। इन कथाओं के कोलाज में जो अंतर्धारा आरंभ से अंत तक प्रवाहित है, वह है कोसी अंचल में सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राज‍नीतिक प्रभावान्विति की अंतर्धारा। उपन्‍यास में 1925 ई. में गॉंधी द्वारा कोसी अंचल की यात्रा से आरंभ कर 1975 ई. तक के चित्र प्रस्‍तुत किए गए हैं। अंतिम कुछ चित्रों में बीसवीं सदी के अंतिम दशक की परिस्थितियों को सं‍केतित करने का प्रयत्‍न किया गया है। प्रतिष्ठित हिन्‍दी कवि-आलोचक श्री अरुण कमल ने लेखक को अपने एक पत्र में उपन्‍यास पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हुए लिखा है-'रेणु ने जहॉं 'मैला ऑंचल' को छोड़ा था, वहॉं से आपने आरंभ किया है...यह उपन्‍यास के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है।...रिपोर्ताज, कथन, कविता, कथानक, चरित्र, राजनीति-सब मिलकर इसे एक विशिष्‍ट कलेवर प्रदान करते हैं। 'छाड़न' यानी नया सिक्‍का ढल रहा है।'
उपन्‍यास के आरंभ में महात्‍मा गॉंधी द्वारा पूर्णिया के 1925 और 1927 के तूफानी दौरे को रेखांकित किया गया है। उस समय जनता दोहरी, तिहरी गुलामी की चक्‍की में पिस रही थी। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए हिंसक-अहिंसक आंदोलनों का जो परिदृश्‍य था, उसके चित्रण के साथ-साथ लेखक ने जमींदारों के शोषण की चक्‍की में पिसती जनता की कथा भी सूक्ष्‍मता के साथ प्रस्‍तुत की है। अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ छापामार लड़ाई लड़नेवाले गरीबों के मसीहा नछत्‍तर मालाकार की लड़ाई पचास वर्षों बाद पूरे इलाके में नक्‍सलवादी आंदोलन में परिणत हो गई और वर्तमान राजनीति किस प्रकार विचारधारा-विहीन होकर जाति, संप्रदाय, आतंक के भेंट चढ़ गई--इसकी कथा संकेतों में ही सही, लेकिन गंभीरता से उपन्‍यास में बयां होती है।
उपन्‍यास के बारे में स्‍वयं लेखक का कहना है कि यह उपन्‍यास पूरी तरह से वैचारिक आधार पर लिखा गया है, जो कोसी क्षेत्र के जनसंघर्ष और वहॉं के राजनीतिक और सांस्‍कृतिक विकास का एक छोटा-सा संकेत है, इस पूरे क्षेत्र का लोकजीवन, पर्यावरण, संघर्ष और जिजीविषा की पड़ताल इस उपन्‍यास में की गई है।